पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

एक राधा का आर्त्तनाद - वीरेन्द्र 'आस्तिक'

वीरेन्द्र 'आस्तिक'

कानपुर (उ.प्र.) जनपद के गाँव रूरवाहार (अकबरपुर तहसील) में 15 जुलाई 1947 को जन्मे मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं सम्पादक श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील, आत्मविश्वासी, स्वावलंबी, विचारशील, कलात्मक एवं रचनात्मक रहे हैं। बाल्यकाल में मेधावी एवं लगनशील होने पर भी न तो उनकी शिक्षा-दीक्षा ही ठीक से हो सकी और न ही विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत और गायन में वह आगे बढ़ सके। जैसे-तैसे 1962 में हाईस्कूल की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और एक-दो वर्ष संघर्ष करने के बाद 1964 में देशसेवा के लिए भारतीय वायु सेना में भर्ती हो गये। पढ़ना-लिखना चलता रहा और छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में वीरेंद्र बाबू और वीरेंद्र ठाकुर के नामों से छपना भी प्रारम्भ हो गया। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। उन दिनों आस्तिक जी दिल्ली में रहा करते थे। दिल्ली में नई कविता का दौर चल रहा था, सो उन्होंने यहाँ नई कविता और गीत साथ-साथ लिखे। 

1974 में भारतीय वायु सेना छोड़ने के बाद वह कानपुर आ गए और भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएँ देने लगे। कानपुर में छंदबद्ध कविता की लहर थी। इस नये माहौल का उनके मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह गीत के साथ ग़ज़लें भी लिखने लगे। 1980 में आ. रामस्वरूप सिन्दूर जी ने एक स्मारिका प्रकाशित की, जिसमें — 'वीरेंद्र आस्तिक के पच्चीस गीत' प्रकाशित हुए। उनकी प्रथम कृति— 'परछाईं के पांव' (गीत-ग़ज़ल संग्रह) 1982 में प्रकाशित हुई। 1984 में उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर से एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1987 में उनकी पुस्तक— 'आनंद! तेरी हार है' (गीत-नवगीत संग्रह) प्रकाशित हुई। उसके बाद 'तारीखों के हस्ताक्षर' (राष्ट्रीय त्रासदी के गीत, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से अनुदान प्राप्त, 1992), 'धार पर हम' (1998, बड़ौदा विश्वविद्यालय में एम.ए. पाठ्यक्रम में निर्धारण : 1999-2005), 'आकाश तो जीने नहीं देता' (नवगीत संग्रह 2002) एवं 'धार पर हम- दो' (2010, नवगीत-विमर्श एवं नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर) का प्रकाशन हुआ। इसी दौरान सितम्बर 2013 में भोपाल के जाने-माने गीतकवि एवं सम्पादक आ. राम अधीर जी ने 'संकल्प रथ' पत्रिका का महत्वपूर्ण विशेषांक— 'वीरेन्द्र आस्तिक पर एकाग्र' प्रकाशित किया। 

आस्तिक जी को साहित्य संगम (कानपुर, उत्तर प्रदेश) द्वारा 'रजत पदक' एवं 'गीतमणि- 1985' की उपाधि— 17 मई 1986, श्री अध्यात्म विद्यापीठ (नैमिषारण्य, सीतापुर) के 75 वें अधिवेशन पर काव्य पाठ हेतु 'प्रशस्ति पत्र'— फरवरी 1987 आदि से अलंकृत किया जा चुका है। 

संपादन के साथ लेखन को धार देने वाले आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। यह प्रवाह उनकी रचनाओं की रवानगी से ऐसे घुल-मिल जाता है कि जैसे स्वतंत्रोत्तर भारत के इतिहास के व्यापक स्वरुप से परिचय कराता एक अखण्ड तत्व ही नाना रूप में विद्यमान हो। इस द्रष्टि से उनके नवगीत, जिनमें नए-नए बिम्बों की झलक है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी, भारतीय जन-मन को बड़ी साफगोई से व्यंजित करते हैं। राग-तत्व के साथ विचार तत्व के आग्रही आस्तिक जी की रचनाओं में भाषा-लालित्य और सौंदर्य देखते बनता है शायद तभी कन्नौजी, बैंसवाड़ी, अवधी, बुंदेली, उर्दू, खड़ी बोली और अंग्रेजी के चिर-परिचित सुनहरे शब्दों से लैस उनकी रचनाएँ भावक को अतिरिक्त रस से भर देती हैं। संपर्क: एल-60, गंगा विहार, कानपुर-208010, संपर्कभाष: 09415474755। 

इस विशिष्ट रचनाकार द्वारा आधुनिक समय में महिलाओं की स्थिति और उनके भविष्य पर लिखी एक लम्बी कविता आपके साथ साझा कर रहा हूँ:-

एक राधा का आर्त्तनाद
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

कंस लूट कर भाग गया है
हारी हरि की राधा रानी
रिसे खून की गर्मी बोली
अब चुप रहना है बेमानी।

देख रही द्वापर में जाकर
पूरे एक महाभारत को
कितने नग्न हो गए थे वे
नंगी करने में औरत को
नग्न प्रदर्शन है जब युग ही
क्या तन ढकना है बेमानी।

मान राजसी क्यों रम्भा का
और अहिल्या क्यों अभिशापित
यह फर्क सोच है, देह नहीं
औरत शोषक औरत शोषित
शोषण-तंत्र कांच का घर है
लाज पहनना है बेमानी।

याद सभ्यता का बर्बर युग
लूटी जाती थी अबलाएँ
कई पत्नियों को रखने का
बाहुबली खुद शास्त्र रचाएं
उस युग के विद्रूप समय को
जिन्दा करना है बेमानी।

नारी-इच्छा-मान किताबी
घर के भीतर वह बांदी है
दोषारोपण सिर मढ़ने की
लंपट को भी आजादी है
घर के भीतर की हिंसा में
तिल-तिल घुटना है बेमानी।

किस आशा की ताकत पर वह
अपशब्द, गालियॉ खाती है
हद है, पीहर से बाबुल तक
फुटबाल बना दी जाती है
खुद को दोषी मान जलाना-
फॉसी चढना है बेमानी।

रूढ -कैचियां चला बेटियों-
को औरत में ढाला जाता
जितना-जितना बढे पुरूषपन
उतना-उतना छांटा जाता
बेटी को बस औरतपन से
दीक्षित करना है बेमानी।

लड़का जनमे तो लड़के की
मॉ में ताकत आ जाती है
लड़की के पैदा होते वह
किस शोषण का भय खाती है
औरत, औरत की ताकत हो
उसका डरना है बेमानी।

इस उपभोक्ता संस्कृति में क्यों
अबला खुद उत्पाद बनी है
हासिल का कुछ अर्थ नहीं बस
सबलों का व्यापार बनी है
खुद को छलना किसके खातिर ?
पथ से गिरना है बेमानी।

नर-नारि काम के ज्ञानी हो
हो शमित काम का ज्वाल रूप
वह मंत्र उपेक्षित क्यों अब तक
जिसमें उज्जवल है बाल रूप
काटते नहीं जड़ शोषण की
डाल काटना है बेमानी।

भूमण्डलीकरण का चालक,
नारी को भोग्या बना रहा
भारत अनुबंधित है उससे
उसकी हॉ मे हॉ मिला रहा
सामंती नवनस्लवाद को,
दोस्त समझना है बेमानी।

काम-काज की दिनचर्या में
सैनिक जैसा उन्मेष रहे
योनहीनता घर कर न सके
मन स्वाभिमान से लैस रहे
रूढ़ वर्जना अग मुकाबिल,
पीछे हटना है बेमानी।

शिक्षा में नारी-शिक्षा का
समाहार हो जन सहमति भी
इस सृष्टि स्वरूपा नारी की
जन-जन में आए जाग्रति भी
युग-सत्य असंभव क्रांति बिना
युग को छलना है बेमानी।

काम-कला में निपुण नारियां
स्वच्छंद जिन्दगी रच सकती
गर्भपात जैसे कृत्यों से
तकनीक ज्ञान से बच सकती
संयम खोकर कामुकता पर
तन का बिछना है बेमानी।

पुरूषों की मरजी पर सहमत
नारी, नारी को कोस रही
लिंग परीक्षण करवाकर क्यों
नारी को ही दे मौत रही
अपने हाथों अपना संख्या
बल कम करना है बेमानी ।

कोमल काया जड़ फसाद की
काया को वज्र बनाना है
नारी-मॉस चबाते हैं वे
मुझको काली बन जाना है
है समाज आधा नारी का
दाय छोड ना हे बेमानी।

क्यों न साफ हो भ्रूण पुत्र का
क्यों न पुत्रियां पाली जाएं
आखिर कैसे रूक पाएगी
पुरूषवाद की बर्बरताएं
रच न सकी नारीमय दुनिया
तो हर रचना है बेमानी।

व्याह करूँ क्या कंसा तुझसे
और करूँ क्या पैदा कंसी
कान्हा अब टूटी बैसाखी
टूट गई वो भ्रामक बंशी
कलियुग विधवा जीवन-सा है
द्वापर जपना है बेमानी।

ग्रन्थों में जो भरा पड़ा है
मिथक तोड़ना उस राधा का
जागो-जागो हे मातृ-शक्ति
सम्मान शीर्ष हो मादा का
सिर्फ विरहणी के अर्थो में
जीना-मरना है बेमानी।

Ek Radha Ka Aarttanad: Poet- Veerendra Astik

1 टिप्पणी:

  1. ग्रन्थों में जो भरा पड़ा है
    मिथक तोड़ना उस राधा का
    जागो-जागो हे मातृ-शक्ति
    सम्मान शीर्ष हो मादा का
    सिर्फ विरहणी के अर्थो में
    जीना-मरना है बेमानी।---
    -----सचमुच इस मिथक को तोडना होग कि राधा का अर्थ सिर्फ़ बिरहणी है....कर्म, योग, भक्ति, ग्यान से पूरित जीवन-आराधना का नाम ही है... राधा...

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: