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मंगलवार, 22 नवंबर 2011

जय चक्रवर्ती और उनके तीन नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

जय चक्रवर्ती

एक टुकड़ा धूप का जो/ बो गये तुम खेत में
अचकचाकर/ जम गये हैं
कई सूरज रेत में/ अब यहाँ आकाश हैं तो
बस सुनहरी छाँव के। (निर्मल शुक्ल)

धूप का टुकड़ा बोकर सूरज उगाने का काम साहित्यकार भी करते हैं यह तो जग-जाहिर है, किन्तु ऐसा करने वाले कम ही लोग हैं। उनमें एक नाम जो काफ़ी समय से हिन्दी साहित्य में सक्रिय है वह है- जय चक्रवर्ती। जीवन के संघर्षों में जीत जाने की राह दिखाने वाला यह कवि जब भी कलम हाथ में लेता है कुछ न कुछ नया ही लिखता है, साहित्य और समाज के लिए। उसके इस नयेपन में सुनहरी छाँव भी है एवं जीवन में उजाला लाती धूप भी। १५ नवम्बर १९५८ को कन्नौज जनपद (उ.प्र.) के कीरतपुर गाँव में जन्मे जय चक्रवर्ती जी हिन्दी साहित्य में एम.ए. और मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने के बाद आई टी आई लि. (रायबरेली) में राजभाषा अधिकारी के पद पर कार्य करने लगे। उनकी रचनाएँ १९८० से से देश की प्रमुख साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपती आ रही हैं। सन्दर्भों की आग, सप्तपदी, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार, दोहासनद, दोहे तेरे नाम दे आदि प्रतिष्ठित संकलनों में उनके दोहे और शब्दपदी, ज़मीन के लोग, नवगीत नई दस्तकें जैसे महत्वपूर्ण संकलनों में गीत/नवगीत प्राकाशित हो चुके हैं। आपको अब तक रेणु स्मृति सम्मान (रायबरेली), कबीर सम्मान (कबीर स्मृति मंच, प्रतापगढ़), डॉ किशोर काबरा काव्य पुरस्कार (हिन्दी साहित्य परिषद्, अहमदाबाद), स्व. भगवती प्रसाद पाठक सम्मान (कादम्बरी, जबलपुर)  आदि डेढ़ दर्जन सम्मान-पुरस्कार प्रदान किये जा चुके हैं। संपर्क- एम. १/ १४९, जवाहर बिहार, रायबरेली- २२९०१० (उ.प्र.), मोब.- 09839665691 । 

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
१. किसकी कौन सुने 

किसकी कौन सुने
लंका में
सब बावन गज के

राजा जी की
मसनद है
परजा की छाती पर
राजधानी का भाग
बांचते
चारण और किन्नर
ध्वज का विक्रय-पत्र
लिये हैं
रखवाले ध्वज के

पोर-पोर से
बिंधी हुई है
दहशत की पर्तें
स्वीकृतियों का
ताज संभाले
साँपों की शर्तें
अंधियारों की
मुट्ठी में हैं
वंशज सूरज के

तार-तार
सपनों का सीना
टंगा टहनियों पर
मुस्कानों पर
गिद्धों की
चस्पा मनहूस नज़र
राजपथों पर
दौड़ लगाते
घोड़े कागज़ के ।

२. पिता

घर को
घर रखने में
हर विष पीते रहे पिता

आँखों की
गोलक में संचित
पर्वत-से सपने
सपनों में
संबंधों की खिड़की
खोले अपने
रिश्तों की चादर
जीवन-भर
सीते रहे पिता

अपने ही साये
पथ में
अनचीन्हे कभी हुए
कभी बिंधे
छाती में चुपके
अपने ही अंखुए
कई दर्द
आदमकद
पल-पल जीते रहे पिता

फरमाइशें, जिदें-
जरूरतें
कन्धों पर लादे
एक सृष्टि के लिए
वक्ष पर
एक सृष्टि साधे
सबको भरते रहे
मग़र
ख़ुद रीते रहे पिता ।

३. चलो रैली में...


चलो भाई
चलो...
रैली में
मसीहा ने बुलाया है

खेत के, खलिहान के
सब काम छोड़ो
बैनरों से-पोस्टरों से
नाम जोड़ो
चलो
देखो-
महल सपनों का
मसीहा ने बनाया है

पेट भरने को
मधुर भाषण वहाँ हैं
ओढ़ने को-
ढेर आश्वासन वहां हैं
चलो-
सुनने फिर
मसीहा ने प्रगति का गीत गया है

हम वहाँ झंडे
कभी नारे बनेंगे
जलूसों के बीच
जयकारे बनेंगे
हम इसी के
वास्ते हैं-
यह मसीहा ने बताया है।

Three Hindi Poems of Jay Chakravarti

5 टिप्‍पणियां:






  1. आदरणीय अवनीश जी
    सस्नेहाभिवादन !

    जय चक्रवर्ती जी के नवगीतों के लिए आभार !
    तीनों ही रचनाएं रचनाकार के कौशल से रूबरू कराती हैं ।
    पिताजी को खो चुकने के कारण पिता नवगीत मन के अधिक करीब लगा………

    जय चक्रवर्ती जी और आपको बधाई और साधुवाद !

    मंगलकामनाओं सहित…
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. आपकी पोस्ट आज के चर्चा मंच पर प्रस्तुत की गई है
    कृपया पधारें
    चर्चा मंच-708:चर्चाकार-दिलबाग विर्क

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  3. तीनों रचनाएँ बहुत ही प्रभावी ... शुक्रिया इस प्रस्तुति के लिए ...

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  4. जय चक्रवर्ती के नवगीत आदर्श नवगीत होते हैं, पूरी तरह से भाव और कथ्य के साथ लयात्मकता को साधने में बहुत परिश्रम करने वाले जयचक्रवर्ती जी स्वयँ जितने सहज और गम्भीर हैं उतने ही उनके नवगीत भी सहज प्रवाह वाले परिपूर्ण नवगीत हैं, हार्दिक वधाई।

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  5. मित्रों चर्चा मंच के, देखो पन्ने खोल |
    आओ धक्का मार के, महंगा है पेट्रोल ||
    --
    बुधवारीय चर्चा मंच

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