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शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

ओमप्रकाश सिंह और उनके तीन नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

डॉ. ओमप्रकाश सिंह

रायबरेली की माटी गीत-नवगीत के लिये बहुत ही उपजाऊ रही है। यहाँ के प्रख्यात नवगीतकार- डॉ शिवबहादुर सिंह भदौरिया जी और श्री दिनेश सिंह जी गीत-नवगीत में जिस संवेदना की बात करते है वह संवेदना अपनी पूरी शक्ति के साथ व्यंजित होती है वरिष्ठ नवगीतकार डॉ ओमप्रकाश सिंह की रचनाओं में। शायद इसीलिए वह अपनी पीढ़ी के कवियों में काफ़ी चर्चित एवं सराहे जाते रहे हैं। इसलिए भी कि उनकी कविताई भावकों को अपने रस में पूरी तरह से भिंगो लेने की सामर्थ्य रखती है। यह उनका कोई जादू नहीं है, और न ही कोई फ़ॉर्मूला जो पाठकों को उनकी रचनाओं से जोड़ता है। बल्कि उनके काव्यत्व की वह शक्ति है, जो पाठकों को आकर्षित तो करती ही है, उन्हें बाँधे रखती है डॉ. सिंह की रचना के अंतिम शब्द तक और यह शक्ति उनकी अपनी व्यावहारिक भाषा, वर्तमान त्रासदियों को उकेरता कथ्य और लयात्मकता से उपजी है। अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे में वह स्वयं कहते हैं - "बदल गया परिवेश/ आज बहुमुखी हवाएं हैं/ मानसरोवर पर/ बगुलों की लगी सभाएं हैं/ अपने अनुभव/ सत्य हुए / तब हमने गीत लिखे।" 08 दिसंबर 1950 को उतरागौरी, रायबरेली (उ.प्र.) में जन्मे डॉ. सिंह हिन्दी में एम. ए. और पीएच.  डी. करने के बाद बैसवारा पी.जी. कालेज , लालगंज, रायबरेली (उ.प्र.) के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक एवं अध्यक्ष हैं। आपके 10 नवगीत संग्रह, दो दोहा संग्रह, एक हाइकू संग्रह, एक गज़ल संग्रह और पांच संपादित कृतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाएँ देश की विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के साथ-साथ आकाशवाणी लखनऊ से प्रसारित हो चुकी हैं। संपर्क- 259, शान्ति निकेतन, साकेत नगर, लालगंज, रायबरेली (उ.प्र.).  मोबाइल- 09984412970। यहाँ पर आपके तीन नवगीत प्रस्तुत किये जा रहे हैं-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. राजा ही सत्ताधारी

लोकतंत्र की इस धरती पर
क्यों मारा-मारी
परजा तो परजा है
राजा ही सत्ताधारी

राजा कहे
न्याय हो जाए
लिखे वही क़ानून
राजा के सपनों में आते
सत्ता के मज़मून
उसकी इच्छा बिना
हिले क्या
कोई दरबारी

खूनी आँखें
आग उगलतीं
कटते बेचारे
जातिवाद से धर्मवाद तक
जो सब कुछ हारे
नारे रोज लगाना
अब तो
जनता की लाचारी

मन की छुअन
आज ओठों पर
अपशब्दों से हारी
भय-आतंक पाँव रखते जब
काँपे शान्ति दुलारी
हिंसा
महलों की रानी
राजा की महतारी

पीड़ा की
छत पर लटकी हैं
अब विकास की आंतें
दरवाजों से राजपथों तक
पल-पल होतीं घातें
कुर्सी पर
बैठा अनुशासन ही
स्वेच्छाचारी ।

2.  रोशनी की व्याख्याएँ
 
अब अँधेरे
कर रहे हैं रोशनी की व्याख्याएँ

शब्द गूंगे हो गये हैं
इस नये परिवेश में
प्यास भी
मुरझा गई है
वेदना के वेश में
उग रहीं हैं
आज मन पर
इंद्रधनुषी ये व्यथाएँ

दर्द ढलने लग गया है
अब नये आकार में
झूठ छुपकर
फिर खड़ा है
सत्य के संसार में
और कुंठित
हो रहीं हैं 
लोक की संवेदनाएँ

कुछ मिथक उगने लगे हैं
जिन्दगी के खेत में
जो फ़सल
मंहगी खड़ी थी
ढह रही है सेंत में
मर रहे हैं
मूल्य सारे
चुक रही हैं  आस्थाएँ ।

3. फिर से गुलाब महका

कर्मशील के
होठों पर
फिर से गुलाब महका

नयी सदी
बैठी खुशियाँ ले
विश्व-ग्राम के घर
अर्थ-व्यवस्था
बदल रही
परवर्तित हुए शहर
कांटे भरत
निकालेंगे अब
समय-सिंह बहका

पथराये मन ने
खिलकर
फिर से आकार लिया
कण-कण के
सीने पर चढ़कर
नव-निर्माण किया
लोक-सर्जना के
घर लौटा
था जो जंगल का

सकारात्मक
सोच लिये
पांवों ने शीश चढ़े
खंडहर के
पत्थर-पत्थर को
पल-पल और गढ़े
संघर्षों के
हाथ हथौड़ा
युग-युग का दहका ।

Three Poems of Dr. Omprakash Singh

7 टिप्‍पणियां:

  1. इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  2. राजा ही सत्ताधारी ----तो और कौन सताधारी होना चाहिए ??

    ----मूलतः नव-गीत की आज जो कथ्य-भंगिमा है ..दूरस्थ भाव ..वह जन जन के लिए नहीं अपितु सिर्फ कवियों साहित्यकारों के समझने में ही आती है ....इसकी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि ...यह कविता जन--जन को सम्प्रेणीय नहीं है ...जबकि इसमें बात जन -जन की होती है ..जन सामान्य के लिए ????.
    ---यदि नव-गीतकार ...व्यंजनाएं , नए नए असामान्य , अप्रचलित शब्दों का प्रयोग न् करें..तो कथ्य अधिक जन-संप्रेषणीय हो...

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  3. मान्यवर, राजा के सत्ताधारी होने की जो बात यहाँ की गई है वह प्रजातंत्र के परिप्रेक्ष्य में देखें, बात समझ में आ जायेगी. जहाँ तक नवगीत के कथ्य की बात है तो यह जनसामान्य/ पाठक की समझ से परे नहीं है. और जो लोग जनता को नासमझ समझते हैं उन लोगों की बुद्धि और विवेक दोनों पर तरस आता है. सुझाव अच्छा है, देते रहिएगा. सादर-
    --

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  4. अच्छे ,सामयिक नवगीत ! कथ्य और शब्द-विन्यास दर्शनीय है !

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  5. जन साधारण के मर्म की सहज अभिव्यक्ति .. आभार

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