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मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

निर्मल शुक्ल और उनके चार नवगीत — अवनीश सिंह चौहान


निर्मल शुक्ल

३ फरवरी १९४८ को जनपद लखनऊ (उ.प्र.) के ग्राम पूरबगाँव, बक्शी का तालाब में जन्मे निर्मल शुक्ल जी सेवानिवृत्ति के बाद लखनऊ  में स्थाई रूप से आ बसे। पूरी निष्ठा से गीत साधना करने वाले इस गीतकार की रचनाएँ परंपरा, प्रयोग एवं प्रगति को सुन्दर ढंग से समोए हुए हैं। आपके गीत, नवगीत, दोहा, मुक्तक आदि बीसवीं सदी के श्रेष्ठ गीत, हिन्दी के मनमोहक गीत, काव्य मंजूषा, समकालीन दोहे, धूप के संगमरमर, गीत-नवांतर, उत्तरायण, शब्दपदी, ढाई आखर आदि महत्वपूर्ण समवेत काव्य संकलनों एवं लब्ध प्रितिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। अब तक रही कुंवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्य काल, नील वनों के पार (सभी नवगीत संग्रह) आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। उत्तरायण साहित्य संस्थान की वर्ष १९९४ में स्थापना कर आप संस्थान की मुख्य पत्रिका 'उत्तरायण' का विधिवत संपादन कर रहे हैं । उ.प्र. हिन्दी संस्थान, लखनऊ के निराला नामित पुरस्कार सहित विभिन्न साहित्यिक संस्थानों द्वारा अनेक मानद उपाधियों एवं साहित्यिक सम्मानों से आपको विभूषित किया जा चुका है। संपर्क: उत्तरायण, सेक्टर एम-१६८, आशियाना कालोनी, लखनऊ (उ.प्र.)-226012 . संपर्कभाष: ०९८३९८२५०६२, ०९४५०४४८४१५




चित्र गूगल सर्च इंजन से
1. मौसम की आनाकानी

चिंगारी से शर्त लगी है
आंधी से तकरार नहीं है

नहीं पसीजीं
गर्म हवायें
रेत हो गये घर सपनों के
एक दूसरे के
कांधों पर
रो लेते हैं सर अपनों के

झंझावातों से अठखेली
करने का त्यौहार नहीं है

है मौसम की
आनाकानी
उतर गये ऋतुओं के तार
हंसकर पतझड़
छेड़ गया है
मधुमासों के साज-संवार

सुर्ख हो गयी धवल चांदनी
लेकिन चीख-पुकार नहीं है

इतने पर भी
कानों में कुछ
दे जाती संवाद दिशायें
दूर कहीं इस
उठापटक में
होंगी फिर अनुरक्त ऋचायें

स्थिति अब इन चिकनी-चुपड़ी
बातों को तैयार नहीं है

२. इतना हुआ बस

रेत की भाषा
नहीं समझी लहर
इतना हुआ बस

बस प्रथाओं में रहो उलझे
यहाँ ऐसी प्रथा है
पुतलियाँ कितना कहाँ
इंगित करेंगी यह व्यथा है

सिलसिले
स्वीकार -अस्वीकार के
गिनते हुये ही

उंगलियाँ घिसतीं रहीं हैं
उम्र भर
इतना हुआ बस

जो क़ि अपना नाम तक भी
ले नहीं सकते सिरे से
लापता होते पते वे
ढूढते हैं सिरफिरे से

बेतुकी
उम्मीद के भी
हाथ फूले पाँव सूजे

बांह रखकर कान पर
सोया शहर
इतना हुआ बस

दूध से उजले धुले सम्बन्ध
सब लिखते रहे हैं
किन्तु इस परिदृश्य में
वे बिंदु से दिखते रहे हैं

उद्दरण हैं
आज भी जो
रंग की संयोजना के

टूट कर दुहरा गयी
उनकी कमर
इतना हुआ बस

3. महक नहीं आती काँटों से

पटा रहा दिन सन्नाटों से
ऐसे में अनुवाद करें क्या
महक नहीं आती काँटों से
इस पर वाद-विवाद करें क्या

बोनों की हिकमत तो देखो
चूम रहे
मेघों के गाल
कागज की
शहतीरें थामें
बजा रहे सब के सब थाल

परछाईं हारी नाटों से
ऐसे में संवाद करें क्या

चट्टानों पर धूप चढी तो
शिखर हुये
हिम से कंगाल
गर्म हवाओं के
दंगल ने
नष्ट किया कुल साज-संभाल

पाला है बन्दर-बांटों से
ऐसे में प्रतिवाद करें क्या


४. मेंहदी कब परवान चढ़ेगी

है तो बस माली की चिंता
कब पौधों में
जान चढ़ेगी

तुझे पता क्या भरते ही दम
कुछ सुलगेंगे
धुआं बनेगे
कुछ पर होगी जिम्मेदारी
रस पी लेंगे
पुआ बनेगें

है तो बस माली की चिंता
मेंहदी कब
परवान चढ़ेगी

मुझे पता है कैसे भी कुछ
सम्मानों की
चाह बनेंगे
कुछ पीपल कुछ बरगद होकर
बिना कहे
परवाह बनेंगे

है तो बस माली की चिंता
लौकी कब
दालान चढ़ेगी। 


Chaar Navgeet: Kavi Nirmal Shukl

2 टिप्‍पणियां:

  1. Nirmal Shukl ji ki kavitayen bahut pasand aaeen , ek naye andaaz men hain , ek soch bahti hui si lagti hai ..

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  2. सुर्ख हो गयी धवल चांदनी
    लेकिन चीख-पुकार नहीं है


    पाला है बन्दर-बांटों से
    ऐसे में प्रतिवाद करें क्या

    है तो बस माली की चिंता
    मेंहदी कब
    परवान चढ़ेगी

    बहुत सारगर्भित कविता, आंदोलित कर गए।

    जवाब देंहटाएं

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